एक बार आत्मज्ञानी पूज्य श्री विराट से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया कि बीज का मोल कितना ???
पूज्य श्री विराट गुरुजी ने उस जिज्ञासु कहा कि बोल का मोल सम्पूर्ण लोक के नाम जितना
जिस प्रकार यह ब्रह्माण्ड अनंत विस्तार है, निरंतर विस्तृत होता जा रहा है, जिसे चुनिक विज्ञान विस्तारशील ब्रह्माण्ड कहता ती प्रकार हमारे द्वारा बोले गए वचन ब्रह्माण्ड जिसे समण भगवान महावीर लोक कहा, तक विस्तृत होते जाते हैं हमारे द्वारा बोले गए वचन सकल ड में असंख्य काल तक रिकॉर्ड रहते है न केवल रिकॉर्ड रहते हैं वरन युगों तक रहते हैं. हम चाहे अच्छा बोले या हमारे द्वारा निकला हर बोल इस सृष्टि सरोवर में उछाले गए पत्थर या कंकड़ की तरह होता है. जिस प्रकार पत्थर या में घनत्व और वजन का अन्तर है, उसी प्रकार बोले जा रहे बोलों में भी विविधता है, जो बोल या शब्द अधिक भाव

स्फुटित हुआ है वह सुदूर भविष्य अपनी तरंगें फैला पाता है. जो वचन भाव शक्ति से, दुर्बल विचार शक्ति से रहा है वह उतना ही कम प्रभावी हो यह सब ठीक उसी तरह होता है जिस एक वजनदार पत्थर को तीव्र वेग से कर सरोवर या तालाब में फेंका जाए उससे उठने वाली तरंगें पूरे सरोवर में भात बनाती जाएं एवं ऐसे बने हुए भंवर फैलते पूरे सरोवर की परिधि तक वहाँ से पुनः लौटते हुए जिस स्थान पत्थर गिराया गया था उस स्थान पर
एकत्रित होकर विनष्ट भी होती जाए. ठीक इसी प्रक्रिया से हम कर्म-बंध विज्ञान को समझ सकते हैं, जो विचार या वचन, हमारे भीतर से स्फुटित होते हैं वे इस सम्पूर्ण लोक में एक ‘आरम्भ’ पैदा करते हैं शोरगुल अथवा संगीत पैदा करते हैं और यह संगीत अथवा शोरगुल इस ब्रह्माण्ड में यथाशक्ति फैलता हुआ पुनः लौटता हैं और जिसने उसे बोला या सोचा था पुनः उसी ‘मूल
पर पहुँचकर भावकर्ता को प्राप्त होता है इसे ही कर्म

बंध का फल भोग कहते हैं. यह समस्त प्रक्रिया ‘जैसी ध्वनि वैसी प्रतिध्वनि अथवा यथा क्रिया तथा प्रतिक्रिया’ कहलाती है. इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझ लेने पर हर इंसान को एक बात सुस्पष्ट हो
प्रतियोगिता दर्पण/जनवरी/2015/11
साध्वी वैभवश्री ‘आत्मा’
जाती है कि हम जो कुछ बोलते-सोचते अथवा करते हैं, वह हम तक लौट कर अवश्य आता है. हमारा भूत ही भविष्य को चित्रित करता है. भूत में प्रभावित भावतरंगें ही भविष्य के रूप में भोग में आती जाती हैं.
इस प्रक्रिया को समझ लेने पर एक बात यह भी स्पष्ट हो जाती है कि हमारा हर वचन व हर विचार इस सम्पूर्ण सृष्टि की घटनाओं के निर्माण में सहायक बनता है. हमारा शब्द सफल होता है. प्रायः लोग ऐसा मानते हैं कि दिनभर में कोई एक समय ऐसा आता है जब हम जो बोलते हैं वो सच हो जाता है, किन्तु समण भगवान महावीर का दर्शन समझने पर यह ज्ञात होता है कि हमारी बोली सदा आकार लेती है, सफल होती है, घटना का तथारूप निर्माण करती ही है. इसीलिए बोलने में विवेक हो यह सर्वाधिक जरूरी है. हम जो भी बोलेंगे वह सच अवश्य होगा, चाहे अभी हो चाहे कुछ समय बाद हो. हमारी हर वाणी कम या अधिक प्रभावी अवश्य होती है हम जैसे ही बोलते हैं.

प्रत्येक व्यक्ति सोचने-विचारने में निर्बाध रूप से स्वतंत्र है. लेकिन बोलने में व्यक्ति की शक्ति सीमित है क्योंकि बोलना उसके बाह्य व्यक्तित्व, भाव-भंगिमा को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है, व्यक्ति जो बोलता है उससे उस भाव – विचार – बोल को सुनने वाला हर्षित हो सकता है, रुष्ट हो सकता है, नाराज हो सकता है, प्रतिक्रियास्वरूप उससे भी अधिक कठोर वचन बोल सकता है, मार- पीट भी कर सकता है. ऐसा अनिष्ट कर सकता है जिसकी क्षतिपूर्ति कर पाना भी सम्भव न हो. इन्हीं आशंकाओं सम्भावनाओं के चलते विचारशील व्यक्ति कुछ अप्रिय बोलने से पहले सोचते हैं. वाणी पर नियन्त्रण रखते हैं. यही व्यक्ति विशेष का दिखाई देने वाला सद्गुण बन जाता है. भावनाओं पर व्यक्ति की यह आधी-अधूरी विजय है. पूर्ण विजय तो तब है जब व्यक्ति किसी को अप्रिय लगने वाले बोल, किसी का अनिष्ट करने वाले बोल, किसी की भावनाओं को आहत करने वाले बोल सोचे भी नहीं. जब कही हुई बात व्यक्ति का स्वयं का और सुनने वाले दोनों का अहित कर सकती है तो ऐसी बात सोचने मात्र से भी दोनों का अहित सुनिश्चित है.
आज का सभ्य समाज असभ्य वाणी न सुनना पसन्द करता है न ही बोलना किन्तु

फिर भी सभ्यता के वस्त्रों में यत्र-तत्र छेद नजर आ ही जाता है. लोग जिसे सुनना पसन्द नहीं करते उसे ही बोलते नजर आ रहे हैं- कारण क्या ?
कारण है भीतर में विचारों का नकारात्मक प्रवाह. जब तक हमारे मनों में अशान्ति है, दुःख, छन्द, कलह-क्लेश है, तब तक वाणी को सँभालना मुश्किल होता ही जाएगा. जिसे हम बोलना या सुनना पसन्द नहीं करते हैं उसे हमारी सोच व संज्ञा से विलोप करना जरूरी है. अन्यथा जो मन में होगा वह वचन में आए बिना नहीं रहेगा और जो कुछ वाणी में उतरेगा वह व्यवहार में क्रिया रूप में भी प्रगटेगा ही. हमारे मन- वाणी व कर्म तीनों ही अन्तर्सम्बन्धित है यथा विचार तथा भाषा, यथा भाषा तथा क्रिया. जैसी हमारी भावनाएं होंगी वैसे ही हमारे भीतर विचार भी आया करेंगे. उदाहरण के तौर पर यदि किसी व्यक्ति के मन में चोरी करके धन कमाने की भावना है, तो ही वह चोरी के विचार करेगा और जब चोरी के विचार उसके भीतर बार-बार उभरेंगे तो किसी दिन वे उसकी जुवां पर व क्रिया रूप में भी आ ही जाएंगे.

गिर्द लोगों की बातों में ऐसा सुनते हैं कि माँ अकसर होता क्या है ? हम अपने इर्द-
अपने बेटे को कह रही होती है कि अरे गाड़ी धीरे चलाना, कहीं दुर्घटना न हो जाए. अब यहाँ माँ ने स्वयं ही दुर्घटना शब्द को बोलकर अपनी सृष्टि में दुर्घटना को बुला कर दिया. उस बेटे ने इस शब्द को सुनने के साथ ही यदि अपने मन में दुर्घटना की एक प्रतिच्छाया बना ली तो उसने भी इसका आह्वान कर दिया. इस प्रकार की कल्पना व कल्पनाओं में उभरे भय ने अपना काम कर दिया. अब यदि ऐसा बार-बार कहा या सोचा जाता है, तो शनैः-शनैः वह घटना पक्की बन जाती है, जिसे कि उस परिवार को दुर्घटना के रूप में भोगना ही पड़ता है. ऐसा ना हो, इसके लिए जरूरी है कि हम कभी चेते और अपने वचनों व विचारों को सँभालकर उपयोग में लाए. ‘बेटा गाड़ी सावधानीपूर्वक चलाना’ इतना ही काफी है, नहीं तो दुर्घटना हो जाएगी, ऐसा नकारात्मक भाव वाले वचन न तो बोलें और न सोचें, अगर कोई अन्य बोले भी तो सुनते ही तुरन्त यह भाव करो व अपने मन-ही-मन कहो कि सबका मंगल हो सब ओर मंगल हो. स्वयं के विचारों के नकारात्मक प्रवाह को सजग होकर स्वयं से विसर्जित करते जाओ व सबके लिए मंगल व कल्याण की कामना से भावों को भरते जाओ. इससे सबका मंगल होगा ही

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